वैन (कृतिका खत्री, सनातन संस्था, दिल्ली - 05.01.2025) :: यह एक सांप्रदायिक जन्मोत्सव है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्र में संध्या समय दत्त का जन्म हुआ। इसलिए उस दिन सभी दत्त-पीठों पर दत्त का जन्मोत्सव मनाया जाता है।
दत्त जयंती का महत्त्व : दत्त जयंती के दिन दत्त-तत्त्व पृथ्वी पर सामान्य दिनों की तुलना में 1000 गुना अधिक सक्रिय होता है। इस दिन दत्त का भावपूर्वक नामजप आदि साधना करने से साधक को दत्त-तत्त्व का अधिकाधिक लाभ मिलता है।
जन्मोत्सव मनाने की पद्धति - दत्त जयंती मनाने के संबंध में शास्त्रों में कोई विशेष विधि नहीं बताई गई है। इस उत्सव से पहले सात दिनों तक गुरुचरित्र का पारायण करने की परंपरा है, जिसे गुरुचरित्र सप्ताह कहा जाता है। भजन, पूजन और विशेष रूप से कीर्तन जैसे भक्तिभाव के उपक्रम प्रचलित हैं।
महाराष्ट्र के औदुंबर, नरसोबाची वाडी, गाणगापुर आदि दत्त-क्षेत्रों में इस उत्सव का विशेष महत्त्व है। कुछ स्थानों पर इस दिन दत्तयाग किया जाता है।
दत्तयाग: दत्तयाग में पवमान पंचसूक्त की आवृत्तियाँ (जप) की जाती हैं और उनके दशांश या तृतीयांश के अनुसार घृत (घी) व तिल से हवन किया जाता है। दत्तयाग के जप की संख्या निश्चित नहीं है। स्थानीय पुरोहितों के निर्देशानुसार जप और हवन किया जाता है।
पुराणों के अनुसार दत्त का जन्म इतिहास : अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया अत्यंत पतिव्रता थीं। उनके पातिव्रत्य के तेज से इंद्रादि देव घबरा गए। देवता ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास जाकर बोले—"अनसूया के वर से कोई भी देवताओं का स्थान पा सकता है या देवताओं का नाश कर सकता है, इसलिए कुछ उपाय करें।"
त्रिमूर्ति ने अनसूया की परीक्षा लेने का विचार किया।
एक बार अत्रि ऋषि अनुष्ठान के लिए बाहर गए थे, तभी त्रिमूर्ति अतिथि के रूप में अनसूया के आश्रम में आए और भोजन माँगा। अनसूया ने उन्हें ऋषि के आने तक प्रतीक्षा करने को कहा, परंतु अतिथियों ने भोजन तुरंत देने का आग्रह किया।
अनसूया ने उनका स्वागत कर उन्हें भोजन के लिए बैठाया। जब वह भोजन परोसने आई, तो अतिथियों ने कहा—
"तुझे निर्वस्त्र होकर हमें भोजन परोसना होगा।"
अनसूया ने सोचा— "अतिथि को विन्मुख भेजना अयोग्य होगा। मेरा मन पवित्र है, मेरे पति का तपोबल मुझे तारेगा।"
अतः उन्होंने अतिथियों का आग्रह स्वीकार कर लिया।
स्वयंपाकघर में पती का चिंतन करते हुए उन्होंने सोचा— "ये अतिथि मेरे बच्चे हैं"— और जैसे ही वह निर्वस्त्र होकर भोजन परोसने आईं, सामने तीन रोते हुए शिशु दिखाई दिए!
उन्होंने उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया। तभी अत्रि ऋषि लौटे। अनसूया ने उन्हें संपूर्ण घटना बताई और कहा—
"स्वामिन् देवेन दत्तम्"
(स्वामी, यह देवताओं द्वारा दिए हुए पुत्र हैं)
अत्रि ने उन्हीं शिशुओं का नाम दत्त रखा। जब शिशु पालने में थे, तब त्रिमूर्ति उनके सम्मुख प्रकट हुए और प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। अत्रि और अनसूया ने कहा—
"ये बालक हमारे घर में ही रहें।"
इसके बाद ब्रह्मा से चंद्र, विष्णु से दत्त, और शंकर से दुर्वासा उत्पन्न हुए। चंद्र और दुर्वासा तप के लिए चले गए, तथा दत्त विष्णु-कृत्य के लिए पृथ्वी पर ही रहे।
दत्त अवतार :
दत्त परिवार का भावार्थ :
दत्त के पीछे की गाय — पृथ्वी का प्रतीक, चार श्वान — चार वेदों का प्रतीक, तथा औदुंबर वृक्ष — दत्त का अत्यंत पूजनीय रूप, क्योंकि इसमें दत्त-तत्त्व अधिक होता है।
दत्तगुरु ने पृथ्वी, अग्नि और चराचर में स्थित 24 गुरुओं से शिक्षा ग्रहण की — पृथ्वी से सहनशीलता, अग्नि से शरीर की क्षणभंगुरता आदि।
दत्त के पूर्ण अवतार: श्रीपाद श्रीवल्लभ, श्री नृसिंह सरस्वती, माणिकप्रभु, तथा श्री स्वामी समर्थ महाराज।
जैन परंपरा में उन्हें नेमिनाथ तथा मुसलमान उन्हें फकीर के रूप में देखते हैं।
दत्त प्रतिदिन अनेक स्थानों का भ्रमण करते थे—
स्नान के लिए वाराणसी, चंदन के लिए प्रयाग, भिक्षा - कोल्हापुर, भोजन - पाँचाळेश्वर (बीड), तांबुलभक्षण - राक्षसभुवन, प्रवचन/कीर्तन - नैमिषारण्य (बिहार), निद्रा - माहूरगढ़, योग -गिरनार
दत्त पूजा में मूर्ति के स्थान पर पादुका और औदुंबर वृक्ष की पूजा की जाती है। आजकल त्रिमुखी मूर्ति अधिक प्रचलित है। उनके जयघोष — 'श्री गुरुदेव दत्त', 'श्री गुरुदत्त' तथा 'दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा' यह नाम धून किया जाता है।
दत्त की झोली का अर्थ : झोली मधुमक्खी का प्रतीक है l मधुमक्खियां जैसे जैसे जगह-जगह पर जा कर शहद एकत्रित करती है और उसका संग्रह करती है, वैसे ही श्री दत्त जगह-जगह घूम कर झोली में भिक्षा एकत्रित करते हैं l जगह -जगह घूमकर भिक्षा मांगने से अहं शीघ्र कम होता है; इसलिए झोली यह अहं नष्ट होने का प्रतीक है l
दत्त जयंती उत्सव भावपूर्ण बनाने हेतु सुझाव : स्त्रियां साड़ी और पुरुष कुर्ता -धोती / पायजमा ऐसे सात्त्विक वस्त्र परिधान कर के उत्सव में सहभाग लें। छात्र ‘श्रीदत्तात्रेयकवच’ का पठन करें व दत्त का नामजप करें l उत्सव के स्थान पर जोर शोर से संगीत ना लगाएं, विद्युत रोशनी जैसे रज-तम निर्माण करने वाली कृति ना करें। दत्त जयंती की फेरी में मंजरी, मृदुंग ऐसे सात्विक वाद्य का उपयोग करेंl
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