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बिहार ब्यूरो (लखीसराय) :: कई सालों से हम देखते चले आ रहे हैं कि जैसे ही देश में चुनाव आते हैं पूरे देश में एक जलसे जैसा माहौल हो जाता है। कुछ लोग इस बहस में लगे रहते हैं कि कौन सी पार्टी जीतेगी, कौन सी पार्टी हारेगी और अपनी-अपनी पसंद की पार्टियों की खूबियों को ले कर तरह-तरह की दलीलें पेश करते रहते हैं। चुनाव में दिलचस्पी और देश के विकास के बारे में सोचना बहुत ही अच्छी बात है। लेकिन फिर हर चुनाव में समाज का एक वो हिस्सा भी देखने को मिलता है जो चुनाव के नतीजे आने तक बस इसी उम्मीद में बैठा रहता है कि शायद इस बार सरकार उनका भी कुछ भला करेगी। यहाँ उस हिस्से की बात हो रही है, जिनका ज़िक्र आप अक्सर सरकारी जुमलों में, पार्टियों के पोस्टरों में और लगभग हर नेता के भाषण में सुन सकते हैं। ये बात है उस किसान की, उस फौजी की, उस सरकारी मुलाज़िम और हर उस व्यक्ति एवं समूह की जो इसी समाज में रह कर सरकारी निज़ामों के दिखाये सुनहरे सपने तो देखते आ रहा है लेकिन जब वो ज़मीन की तरफ देखते हैं तो खुद को ठगा हुआ महसूस करते है।ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि देश की व्यवस्थाओं के बारे में जो कहानियाँ हम सुनते हैं वो हमें दिखाती हैं कि सब कुछ अच्छा है, अमीर से लेकर गरीब तक सब खुश हैं, राजनीतिक पार्टियां सिर्फ देश की भलाई के ही बारे में सोचती हैं, लेकिन अपने आस-पास नज़र घुमा कर देखा जाए तो एहसास होता है कि ये सभी बातें तो बस एक पानी का बुलबुला है जो पलक झपकते ही फूट जाता हैं। इस साल के चुनाव में साफ तौर पर देखा जा सकता है कि ज़रूरी मुद्दों पर बात होने के बजाय सभी तरह की बातें हो रही हैं। ऐसे ही चुनावी जुमलों और बयानों को देख सकते हैं और तय कर सकते हैं कि यह बस जुमले हैं या इनका वास्तविक्ता से भी कुछ लेना-देना है।इस चुनाव प्रचार के दौर में देखा गया है कि तमाम नेता कई मुद्दों को लेकर अक्सर वोट मांगते नज़र आए हैं।
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