- नवरात्र के पहले दिन की गई माता शैलपुत्री की पूजा-अर्चना
वैन (भिवानी - हरियाणा ब्यूरो - 07.10.2021) :: प्रथम्ं शैलपुत्री च वन्दे वंछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखरा। वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनी॥ पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के स्वरूप में साक्षात शैलपुत्री की पूजा देवी के मंडपों में पहले नवरात्र के दिन होती है। शैलपुत्री अपने अस्त्र त्रिशूल की भांति हमारे त्रीलक्ष्य (धर्म, अर्थ और मोक्ष) के साथ मनुष्य के मूलाधार चक्र पर सक्रिय बल है। मूलाधार में पूर्व जन्मों के कर्म और समस्त अच्छे-बुरे अनुभव संचित रहते हैं। यह चक्र कर्म सिद्धांत के अनुसार यह चक्र प्राणी का प्रारब्ध निर्धारित करता है, जो अनुत्रिक के आधार में स्थित तंत्र और योग साधना की चक्र व्यवस्था का प्रथम चक्र है। यही चक्र पशु और मनुष्य के बीच में लकीर खींचता है। यह बात स्थानीय हालुवास गेट सिद्धपीठ बाबा जहरगिरी आश्रम के पीठाधीश्वर अंतर्राष्ट्रीय श्रीमहंत जूना अखाड़ा डॉ. अशोक गिरी महाराज ने नवरात्रि प्रांरभ अवसर पर नवरात्रे के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा-अराधना करने उपरांत उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कही। श्रीमहंत ने कहा कि नवरात्रे में माता की अराधना करने से भी दुख दूर होते है माता भक्त की सभी मनोकामनाएं पूरी करती है। उन्होंने का कि नवरात्रों में देवी मां घरों में विराजमान रहकर अपनी कृपा बरसाती है। श्रीमहंत ने कहा कि नौ दिनों तक लगातार हर घर में माता की पूजा-अर्चना होगी। उन्होंने कहा कि नवरात्रो का महत्व तभी है, जब हम हर घरो मे बेटियो का सम्मान करें। श्रीमहंत ने कहा कि नवरात्रि के प्रथम दिन घटस्थापना की जाती है और अखंड ज्योत भी जलाई जाती है। नवरात्रि का पावन पर्व 9 दिनों तक बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। नवरात्रि के दौरान मां के 9 रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। नवरात्रि के प्रथम दिन मां के प्रथम स्वरूप मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण मां दुर्गा का नाम शैलपुत्री पड़ा। मां शैलपुत्री नंदी नाम से वृषभ पर सवार हाती है और उनके दाहिने हाथ में त्रिशुल व बाएं हाथ में कमल का पुष्प होता है। मां शैलपुत्री के पूजन से जीवन में स्थिरता और ढृढ़ता आती है। खासतौर पर महिलाओं को मां शैलपुत्री के पूजन से विशेष लाभ मिलता है। महिलाओं की पारिवारिक स्थिति, दांपत्य जीवन, कष्ट क्लेश और बीमारियां मां शैलपुत्री की कृपा से दूर होते है। श्रीमहंत ने कहा कि इसके पीछे की कथा यह है कि एक बार प्रजापति दक्ष (सती के पिता) ने यज्ञ किया और सभी देवताओं को आमंत्रित किया। दक्ष ने भगवान शिव और सती को निमंत्रण नहीं भेजा। ऐसे में सती ने यज्ञ में जाने की बात कही तो भगवान शिव उन्हें समझाया कि बिना निमंत्रण जाना ठीक नहीं लेकिन जब वे नहीं मानीं तो शिव ने उन्हें इजाजत दे दी। जब सती पिता के यहां पहुंची तो उन्हें बिन बुलाए मेहमान वाला व्यवहार ही झेलना पड़ा। उनकी माता के अतिरिक्त किसी ने उनसे प्यार से बात नहीं की। उनकी बहनें उनका उपहास उड़ाती रहीं। इस तरह का कठोर व्यवहार और अपने पति का अपमान सुनकर वे क्रुद्ध हो गयीं। क्षोभ, ग्लानि और क्रोध में उन्होंने खुद को यज्ञ अग्नि में भस्म कर लिया। यह समाचार सुन भगवान शिव ने अपने गुणों को भेजकर दक्ष का यज्ञ पूरी तरह से विध्वंस करा दिया। अगले जन्म में सती ने हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है। इस अवसर पर बाबा कैलाश गिरी, घनश्याम यति, प्रताप सरपंच, काशी से आए हुए पंडित, दीपक पाठक, विशाल पाठक, सुनील बोदिया सहित अनेक लोग उपस्थित रहे।
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