बुद्धत्व की संभावना हर अंतस में...

सुजाता प्रसाद (बिहार) :: बुद्ध का अर्थ है- जाग्रत व्यक्ति, जिसके अंतस में परम चैतन्य की जागृति हुई हो। बुद्ध का धर्म तो बुद्धि का धर्म कहा गया है। भगवान बुद्ध का सनातन संदेश है- अप्पो दीपो भव ! अर्थात अपने दीपक स्वयं बनो चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते, काम करते-विश्राम करते, जीवन की प्रत्येक दशा में अपने भीतर जागरण के सूत्र को पकड़े रखो। जिस दिन हमारे जीवन मे जागृति आती है, बस उसी दिन से हमारे सच्चे जीवन की शुरूआत होती है, उसी दिन हमारा नया जन्म होता है, उसी दिन हम नए मनुष्य बनते हैं। हर पल चेतन अवस्था में रहना, अपने बोध को संभाले रखना और आत्मस्मृति में रहना आध्यात्मिक रूप से हमारे लिए यही तो साधना है।

सत्य, अहिंसा, और ज्ञान को प्रचारित करने वाले बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध का जीवन चरित्र तथा उनका चिंतन हम सबके लिए प्रेरणादायी है। अगर हमारे जीवन में बुद्ध की उपस्थिति हो तो दुख का अंत हो जाता है। उन्होंने मनुष्यों को पशुता का मार्ग त्याग कर मानवता का मार्ग अपनाने को कहा। साथ ही जीवन-दर्शन के सभी पहलुओं पर चिंतन-मनन करने के बाद अपने विचारोंके माध्यम से मानव जीवन जीने के लिए नए आयामों की व्याख्या की। सर्वप्रथम बुद्ध ने ही सारे संसार को दुखमय माना और इसके निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग को हृदय में बसाने की बात कही। और उनके बताए सूत्र के कारण गौतम बुद्ध को यह समझा गया कि बुद्ध दुखवादी हैं। सच तो यह है कि बुद्ध दुखवादी नहीं, हम दुखवादी हैं, क्योंकि हम बेहोशी और यांत्रिकता में जीते हैं और पूरे जीवन को दुखमय बना लेते हैं।ऐसे में अगर हम अपनी जीवन-शैली में बोध को जोड़ दें तो हम भी बुद्ध होने की राह पर चल पड़ते हैं और दुख से लड़ने की शक्ति और उससे पार होने की क्षमता पा सकते हैं।

विलासिता में एक होश रहित और मशीनी जीवन जीते हुए, युवराज गौतम को जब असारता की गहरी प्रतीति हुई तब उन्हें अपना जीवन मृत्यु जैसा लगने लगा था और तब वे परेशान और निराश होकर जंगल चले गए, जहाँ उन्होंनें जीवन का अर्थ और अभिप्राय की खोज के लिए कठिन और अथक साधना शुरु की। आज के संदर्भ में प्रश्न ये उठता है कि वर्तमान में क्या हमें भी संसार का त्याग करना जरूरी है? नहीं। इक्कीसवीं सदी के इस दौर में मनुष्य की चेतना बड़े पैमाने पर विकसित एवं विस्तारित हुई है। अब हमें जंगल जाने की जरूरत नहीं है। बल्कि हम अपनी कार्यशैली में, अपनी व्यवस्था में ही ध्यान-साधना कर सकते हैं, बस हमें अपनी श्वास-निश्वास के प्रति सचेत रहना होता है, उनका साक्षी होना होता है। इस प्रकार हम अपने शरीर, मन और हृदय के पार जाकर अपने दृष्टा भाव को पा सकते हैं। हम अपने सभी कार्य-कलापों के प्रति चेतनावस्था में रहें तो बुद्ध को जो जीवन का समाधान मिला, वह हम सबको भी मिल सकता है।

बुद्धत्व की संभावना हर व्यक्ति के अंतस में है। बोधिसत्व के सत्व को पाने के लिए ध्यान-साधना की भूमि का निर्माण करना होता है, अपनी चेतना (होश) का दीप प्रज्वलित करना होता है। यदि हम बुद्ध के विराट व व्यापक संदेश को भावनात्मक रूप से एवं मानसिक स्तर पर अपना लें तो अपने–आप हमारे वचनों में मधुरता आ जाएगी, हमारी जीवन-शैली संतुलित एवं सम्यक हो जाएगी।

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