विलुप्त हो चुकी विवाह समारोह की शान रही डोली की आपबीती

वैन (रामा शंकर - आरा) :: आधुनिक शोर-शराबे के बीच समय व धन ने विवाह के मूल स्वरुप को बदल कर रख दिया है। हम आपको बताने जा रहे हैं विवाह समारोह से विलुप्त होती जा रही "डोली" की। जी हाँ, पुरानी संस्कृति व इतिहास की धरोहर डोली की। "चलो रे डोली उठाओ कहार", "पिया मिलन की रुत आयी" सरीखे गीत अब सुनने को नहीं मिलते। यह गीत जब भी कभी बजता है, कानों में भावपूर्ण मिश्री सी घोल देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसमें छिपी है किसी बहन अथवा बेटी के उसके परिजनों से जुदा होने की पीड़ा के साथ साथ नव दाम्पत्य जीवन की शुरूआत की अपार खुशी और अपने पैदाईशी परिवार से जुदाई के वो भावुक पल। इसी अंदाज में दो से तीन दशक पूर्व गांवों के लोग अपनी बेटियों को शादी के बाद डोली में ससुराल के लिए विदा करते थे। दूल्हा-दूल्हन की आरजू रहती थी कि: -

"चंदा की डोली और सितारों की बारात होगी।
तेरे दरवाजें पर इक दिन मेरी बारात होगी।"
"गूंजेगी शहनाई उस दिन।
अपनी जिदंगी की नयी शुरूआत होगी।"

बदलते युग की तरह आज गांव-कस्बों में डोली प्रथा समाप्त हो गई है। आज के आधुनिक युग में फैशन के अनुरूप लग्जरी गाड़ियों में तब्दील होकर रह गई है। क्षेत्र में अब ना तो डोली नजर आती है और ना ही कहार। इस धंधे से जुड़े लोगों ने जमाने के अनुरूप अपना व्यवसाय भी बदल लिया है और अपने बच्चों का भरण-पोषण कर रहे हैं। बदलते जमाने और वैज्ञानिक युग के कारण गांवों से बहुत सी प्रथाएं समाप्त हो गई हैं। जो अब सिर्फ पुरानी फिल्मों में ही देखने को मिलेंगी। फिल्म में डोली पर दुल्हन की विदाई का दृश्य, बहु-बेगम, रजिया सुल्तान, जानी-दुश्मन आदि फिल्मों में बखूबी प्रदर्शित कर दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया था। बारात विदा करते समय एक रस्म अदा की जाती थी। जिसे "परछावन" के नाम से जाना जाता था। दूल्हे को डोली में बैठाकर महिलाएं एकत्र रूप से गीत-गायन करती थी।''

- ''गांव के देवी-देवताओं के यहां माथा टेकाते हुए ससुराल रूख्सत किया जाता था। जब तक डोली ससुराल नहीं पहुंचती थी तब तक दुल्हन वाले किसी को पानी तक नहीं पूछंते थे। जब डोली समेत बारात पहुंचती थी, तब द्वार पर पूजा की रस्म अदा की जाती थी।''

- ''पहले दूल्हे की आवभगत होती थी उसके बाद अन्य मेहमानों का आदर-सत्कार होता था। इसके बाद शादी की अन्य रस्में अदा की जाती थी। फिर दूल्हा इसी लुप्त हो चुकी डोली में दूल्हन को बैठाकर अपने घर लेकर आता है। घर पहुंचने पर महिलाएं एकत्रित होकर परम्परिक मांगलिक गीत गाती थी।''

- ''चवाल, बताशा, चूरा, पैसा लूटाया जाता था। इसके बाद दूल्हन डोली से कदम निकालती थी। दूल्हन का पैर जमीन पर ना पड़े इसके लिए एक खास तरह का सामान जिसे मौनी (डलिया) कहा जाता है बिछाया जाता था। डोली से पहला कदम दूल्हन का मौनी पर पड़ता था। उसी के जरिए वह घर में कदम रखती थी।'' आधुनिकता के कारण वैवाहिक कार्यक्रम दिखावा सा बन कर रह गया हैं।

आजकल के युवाओं के लिये यह सब तो था पुराने जमाने का तराना लेकिन आजकल जो रस्मोंरिवाज़ हैं उनमे युवा बीएमडब्लू से कम में विदाई का ख्वाब नहीं देखते।

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